अमीरी हारी, भक्ति जीती: सुमित्रा के आंसुओं ने कैसे बदल दी बांके बिहारी की रज़ामंदी

अमीरी हारी, भक्ति जीती: सुमित्रा के आंसुओं ने कैसे बदल दी बांके बिहारी की रज़ामंदी

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अधूरी प्रतीक्षा और बुझती दिया-बाती

सूरज ढल चुका था और गाँव के उस पुराने पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर सांझ की आरती का समय हो चला था। वातावरण में धूप और अगरबत्ती की महक तो थी, लेकिन एक अजीब सी बेचैनी भी हवा में तैर रही थी। व्यास पीठ पर बैठे कथा वाचक पंडित जी और वहां उपस्थित तमाम भक्तजन बार-बार उस खाली पड़े आसन की ओर देख रहे थे, जो मुख्य यजमान के लिए सजाया गया था।

काफी देर हो गई, पर वह अमीर जोड़ा, जिन्होंने इस कथा का बीड़ा उठाया था, कहीं नजर नहीं आ रहा था। तभी भीड़ में से एक बुजुर्ग महिला, जिन्हें पूरा गाँव 'मंगला काकी' कहता था, भीड़ को चीरते हुए आगे आई और वहां खड़ी सुमित्रा के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, "अरे बहू! अब और कितनी बाट जोहोगी? जिन्होंने सुबह बड़ी शान-ओ-शौकत से भागवत जी की पोथी उठाई थी, वो तो 'नाम बड़े और दर्शन छोटे' वाली कहावत सिद्ध कर गए। वो दोनों तो कबके अपने वातानुकूलित कमरे में जाकर तानकर सो गए हैं।"

सुमित्रा ने चौंककर काकी की ओर देखा। काकी ने बात आगे बढ़ाई, "मैंने उनके दरवाजे पर कई बार दस्तक दी, पर कोई जवाब नहीं आया। लगता है थकान का बहाना बनाकर वे लोग अपनी सुख-सुविधा में मस्त हैं। अब कथा संपन्न हो चुकी है और बांके बिहारी की आरती का समय निकल रहा है। तू खड़ी क्या देख रही है? जल्दी से थाली सजा और आरती की तैयारी कर।"

गृहस्थी का बोझ और एक अधूरा सपना

मंगला काकी की बात सुनकर सुमित्रा हतप्रभ रह गई। उसकी आँखों में अनायास ही पुराने दिन तैर गए। सुमित्रा, जो महादेव की अनन्य भक्त थी, उसका वर्षों से बस एक ही सपना था—अपने घर के आंगन में श्रीमद् भागवत कथा का आयोजन करवाना। लेकिन मध्यम वर्गीय भारतीय नारी के सपने अक्सर घर की जिम्मेदारियों के नीचे दबकर रह जाते हैं।

सुमित्रा के पति, रमेश बाबू, स्वभाव से तो बहुत सीधे थे, पर किस्मत की लकीरों ने उन्हें कड़ी परीक्षा में डाल रखा था। रमेश के छोटे भाई और उनकी पत्नी का एक सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया था, जिसके बाद उन दोनों बच्चों की जिम्मेदारी भी रमेश और सुमित्रा के कंधों पर आ गई थी। अपने दो बच्चे और देवर के दो बच्चे—कुल मिलाकर छह लोगों का परिवार। रमेश एक प्राइवेट कंपनी में सुपरवाइजर थे, जहाँ तनख्वाह तो ठीक थी, लेकिन 'आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया' वाली स्थिति हमेशा बनी रहती थी।

गाँव-पड़ोस में जब भी कोई कथा करवाता, सुमित्रा का मन ललचा जाता। वह कई बार दबी जुबान में रमेश से कहती, "सुनिए, क्या हम एक छोटी सी कथा नहीं करवा सकते?" रमेश हर बार अपनी खाली जेब और बच्चों की फीस का हवाला देकर नजरें झुका लेते, "सुमित्रा, अभी नहीं। पहले बच्चों का भविष्य, फिर धर्म-कर्म।" पति की लाचारी देखकर सुमित्रा चुप रह जाती, पर उसका मन भीतर ही भीतर रोता था।

भोलेनाथ से एक मूक अर्जी

कहते हैं, 'मन चंगा तो कठौती में गंगा', लेकिन सुमित्रा तो साक्षात गंगा को अपने द्वार पर बुलाना चाहती थी। एक बार अपनी ननद के घर कथा में गई सुमित्रा ने व्यास पीठ के सामने माथा टेककर, आंसुओं से भीगी आंखों से महादेव से गुहार लगाई थी, "हे त्रिपुरारी! क्या तेरी इस बेटी के भाग्य में तेरी कथा सुनना नहीं लिखा? अगर मेरा भाव सच्चा है, तो कोई ऐसा चमत्कार कर कि मेरे आंगन में भी तेरे नाम का जयकारा गूंजे।"

शायद उस दिन भोलेनाथ समाधि छोड़कर अपनी भक्त की पुकार सुन रहे थे। कुछ ही दिनों बाद एक चमत्कार हुआ। एक प्रसिद्ध कथा वाचक और उनकी मंडली गाँव से गुजर रही थी, लेकिन गाँव के मुख्य मंदिर का जीर्णोद्धार चल रहा था, इसलिए वहां जगह नहीं थी। मंडली को कथा के लिए एक खुले और शांत स्थान की तलाश थी। उनकी नजर सुमित्रा के घर के सामने वाले पुराने, विशाल पीपल के चबूतरे और खुले अहाते पर पड़ी।

जब कथा वाचक ने रमेश से उस स्थान पर कथा करने की अनुमति मांगी, तो रमेश को लगा जैसे साक्षात ईश्वर ने उनकी लाज रख ली हो। बिना एक पैसा खर्च किए, कथा स्वयं उनके द्वार चल कर आई थी। रमेश ने ख़ुशी-ख़ुशी हामी भर दी।

दिखावे की भक्ति बनाम सच्ची सेवा

कथा का आयोजन तय हुआ, लेकिन इसका खर्च उठाने के लिए गाँव के एक धनी सेठ, सेठ गिरधारी लाल, आगे आए। उन्होंने केवल अपनी प्रतिष्ठा और नाम के लिए मुख्य यजमान बनना स्वीकार किया। सुमित्रा को इससे कोई आपत्ति नहीं थी, उसे तो बस प्रभु की वाणी सुननी थी।

जिस दिन कलश यात्रा थी, उस दिन रमेश को ऑफिस के किसी जरूरी काम से शहर जाना पड़ गया। इधर, सेठ और सेठानी तो अपनी महंगी साड़ियों और गहनों को संभालने में ही व्यस्त थे। उन्हें न तो रीतियों का ज्ञान था, न ही मन में सेवा का भाव। कलश यात्रा में जब अव्यवस्था होने लगी, तो सुमित्रा ने अपनी गृहस्थी का तजुर्बा दिखाया। उसने तुरंत गाँव की अन्य महिलाओं के साथ मिलकर मोर्चा संभाला और कलश यात्रा को निर्विघ्न संपन्न कराया।

पूरे सात दिन सुमित्रा ने एक छाया की तरह सेवा की। कभी संतों के लिए जलपान, तो कभी श्रोताओं के लिए बैठने की व्यवस्था। वहीं, सेठ-सेठानी केवल फोटो खिंचवाने और विशिष्ट अतिथियों के आने पर ही पंडाल में दिखते। और आज, अंतिम दिन, जब पूर्णाहूति और महाआरती का समय आया, तो वे थकान का बहाना बनाकर अपने घर सोने चले गए।

बांके बिहारी का न्याय

वापस वर्तमान के दृश्य में, मंगला काकी सुमित्रा को झकझोर रही थीं। "अरी पगली! सोच क्या रही है? भगवान भाव के भूखे हैं, धन के नहीं। उन सेठ-सेठानी का रिश्ता तो बस दिखावे का था, तभी तो देखो, अंत समय में प्रभु ने उन्हें अपनी आरती से ही वंचित कर दिया। उन्हें नींद आ गई क्योंकि उनके मन में 'प्यास' नहीं थी।"

काकी ने स्नेह से कहा, "भगवान ने तुझे यह मौका दिया है। तूने सच्चे मन से अर्जी लगाई थी न? देख, तेरी अर्जी कबूल हो गई। व्यास जी खुद तेरे दरवाजे पर हैं। अब यह अधिकार तेरा है।"

"लेकिन काकी, आरती तो जोड़े से होती है..." सुमित्रा ने संकोच भरे स्वर में कहा, उसकी नजरें गेट की तरफ थीं।

तभी काकी के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान तैर गई। उन्होंने मुख्य द्वार की ओर इशारा करते हुए कहा, "जरा पीछे मुड़कर तो देख, तेरा 'भोला' भी आ गया है।"

सुमित्रा ने पीछे मुड़कर देखा। रमेश, पसीने में लथपथ, कंधे पर ऑफिस का बैग टांगे, दौड़ता हुआ आ रहा था। वह सीधा चबूतरे के पास आकर रुका और हांफते हुए बोला, "क्या आरती हो गई? बस नहीं मिली थी, पैदल भागता हुआ आया हूँ।"

सुमित्रा की आँखों से झर-झर आंसू बहने लगे। यह संयोग नहीं, ईश्वरीय संकेत था। मंगला काकी ने आरती का सजा हुआ थाल सुमित्रा और रमेश के हाथों में थमा दिया।

अटूट विश्वास की जीत

जैसे ही सुमित्रा और रमेश ने मिलकर "आरती कुंजबिहारी की..." गाना शुरू किया, पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया। सुमित्रा को लगा जैसे साक्षात कन्हैया उसके सामने खड़े होकर मुस्कुरा रहे हैं। उसके पास धन नहीं था, लेकिन आज उसके पास वह धन था जो बड़े-बड़े सेठों की तिजोरियों में नहीं मिलता—सच्ची भक्ति और ईश्वर का आशीर्वाद।

रमेश ने अपनी पत्नी की ओर देखा, उसकी आँखों में कृतज्ञता थी। आज सुमित्रा का सपना पूरा हो गया था, वह भी बिना किसी कर्ज के। भगवान ने यह सिद्ध कर दिया था कि वे महलों में नहीं, बल्कि भक्त के भाव में बसते हैं।

सीख: ईश्वर से रिश्ता दौलत या दिखावे का नहीं, बल्कि दिल और तड़प का होता है। जब एक गृहणी निस्वार्थ भाव से, अपनी सीमाओं में रहकर भी ईश्वर को पुकारती है, तो परमात्मा किसी न किसी रूप में उसकी पुकार को 'कबूल' जरूर करते हैं। 'देर है, पर अंधेर नहीं।'